Saturday, 24 February 2024

dakshin

 दक्षिण भारत के मदुरै , रामेश्वरम , लेपाक्षी की यात्रा। 

२०२० में मिथिला के दरभंगा हवाई अड्डा के खुलने से दक्षिण भारत की  यात्रा अब काफी सुगम हो गयी है।  विगत वर्ष २०२३ में दरभंगा से कर्णाटक की राजधानी बंगलुरु तक हवाई मार्ग से फिर बंगलुरु से  तमिलनाडु के मदुरै के लिए प्रातः प्रस्थान किया और सपरिवार मीनाक्षी मंदिर में दर्शन किया। उस दिन तमिल का नव वर्ष  धन्मुकि था जिसके कारण अत्यधिक भीड़ थी मंदिर में जाने के लिए पश्चिम गोपुरम के तरफ से लाइन में लग गया आगे ससरते हुए  दक्षिण गोपुरम  तरफ बढ़ रहा था तभी एक युगल ने मदद की पेशकश करी और टिकट काउंटर से दर्शन के लिए हमलोगों का टिकट ले आये और पूर्वी गोपुरम से हमलोग मंदिर के अंदर प्रवेश किया वहां भी लम्बी कतार  थी मेरे साथ एक साल की पोती व्याकुल होकर रो रही थी तभी वह युगल हमारे पास आये    और लाइन से बाहर  कर खाली लाइन से आगे बढ़ा दिया और हम सभी ने भव्य गलियारे से होते हुए छत पर बने सुन्दर पेंटिंग निहारते हुए बीच में स्थित पुष्कर्णी ( छोटा तालाब ) के बगल से सोमेश्वर एवं मीनाक्षी जी का दर्शन कर कृत्य कृत्य हो गया। अगले दिन सवेरे आसानी से सोमेश्वर ( शिव ) एवं मीनाक्षी ( पार्वती ) जी का दर्शन कर रामेश्वरम के लिए सड़क मार्ग से प्रस्थान किया।रामेश्वरम मंदिर के पास पहुँच पंडा से कल सवेरे पूजा अर्चना की बात तय कर धनुष कोढ़ी और अरिचल मुनाई के लिए प्रस्थान किया। शाम के बाद इस वीरान समुद्री किनारे पर रुकने की मनाही है।  यहाँ हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी मिलती है।  हमलोग वीरान एक बस्ती जो समुद्री तूफान में विध्वंस हो गयी थी को देखते हुए दूर तक चले गए और लौटकर पाया कि हमारी बस नहीं है।  अँधेरा बढ़ रहा था हिन्द महासागर में उफनती लहर  भयावह हो रही थी अधिकांश पर्यटक लौट चुके थे।  यहाँ से रामेश्वरम लौटना मुश्किल लग रहा था।  मन में सिहरन पैदा हो रही थी तभी एक कार हमलोगों के पास रुकी।  वही युगल थे जो मदुरै मंदिर में मिले थे उन्होंने सहायता की पेशकश की।  उनकी कार में कुछ खराबी आ जाने के कारण उन्हें लौटने में विलम्ब हुई थी।  हम लोगों को उन्होंने रामेश्वरम पहुंचा दिया।  सबेरे रामेश्वरम में पूजा अर्चना कर हमलोग वापस बंगलोर  आ गए।    

Wednesday, 21 February 2024

 कबीर पंथ के संत कवी घरभरन झा 

कर्महे तरौनी मूल के श्रोत्रिय ब्राह्मण जिनका जन्म १८४० में दरभंगा जिला के  अवाम ग्राम में पंडित अपूछ झा के पुत्र के रूप में हुआ था।  इनका विवाह उजान ग्राम के पंडित हृदयनाथ झा के सुपुत्री से संपन्न हुआ जिनसे तीन पुत्र और ५ पुत्री का जन्म हुआ। कुल आठ संतान में  बड़े पुत्र नरसिंघ झा का देहवसान युवा अवस्था में हो गया और एक पुत्री का भी देहांत हो गया था जिनकी विवाह महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह से स्थिर था। दो पुत्री का विवाह   खण्डवला कूल  के मधेपुर ड्योढ़ी और इन्द्रपुर ड्योढ़ी के  बाबू  साहेब  से तथा एक पुत्री का विवाह भटपुरा ग्रामवासी श्रोत्रिय ब्राह्मण से संपन्न हुआ , सबसे छोटी पुत्री का विवाह दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह से हुआ।  दो पुत्र  बाबू भगवान दत्त झा, एवं मंधन झा का जिक्र म.म।  परमेश्वर झा ने अपनी पुस्तक मिथिला तत्व विमर्श में  प्रभृत व्यक्ति में किया है। वे भरा पूरा परिवार छोड़कर  १९०० में  गोकुलवास हुए उस समय उनके दामाद मिथिलेश रमेश्वर सिंह  दरभंगा के महाराज थे। इनकी पत्नी का देहवसान राजनगर में हुआ था जहां महाराज ने मंदिर का निर्माण करवाया।   इनके दोभित्र { नाती ) दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह और राजा बहादुर विशेश्वर सिंह और मधेपुर ड्योढ़ी के श्रीपति सिंह थे जिनके पुत्र डॉक्टर लष्मीपति सिंह मैथिली  के प्रख्यात विद्वान हुए।    

 बाबू घरभरन झा  कबीर पंथ के अनुयायी थे और उस पंथ में उनका सम्मान  गुरु का था। सुनने में आता है   कि   उनके मृत्यु के कई दशकों   तक  उस पंथ के साधु  उनके वास् डीह  से चरण धूलि  ले जाते थे यह भी परिवार के  लोगो का कहना है कि  अपने बड़े पुत्र के देहवसान होने पर वे करताल  बजाते हुए शमशान तक गए थे।   उनकी लिखी पाण्डुलिपि  कैथी लिपि में करीब १०० पृष्ट की मिली है जो कबीर भजन का प्रतीत होता  है जिसका   एक पन्ने  का  चित्र एवं अनुवाद प्रतिष्ठित पत्रिका  धर्मायन  के १३९ वं  अंक में प्रकाशित हुई है  जिसमे कई शब्द मैथिलि के है।  आचार्य रामानंद के १२  शिष्यों में कबीर , रैदास , धना , पीपा , पद्मावत्ती आदि संतों ने समाज के सभी वर्गों तक  लोकवाणी में अपनी बात पहुंचाई थी।  संतों के साहित्य पर आज विशद रूप से विवेचना की आवश्यकता है ताकि इन्हें भारतीय संत परम्परा में स्थापित किया जा सके।  संत कवी घरभरन झा के हीं मूल कर्महे तरौनी के परमहंस विष्णुपुरी १५ वी शती में हुए ,जिनके मैथिलि गीत बंगाल , असम , नेपाल , मिथिला में भी गाये गये।  जिनकी लिखी भक्तिरत्नावली चैतन्य महाप्रभु गाते  थे और आज भी लोकप्रिय है। इसीतरह असम के शंकर देव् को भी विष्णुपुरी जी ने भक्ति रत्नावली भेजी थी।                ..... ,   

Saturday, 10 July 2021

माधवेश्वर प्रांगन


माधवेश्वर महादेव मंदिर , कामेश्वरनगर , दरभंगा .
----------------------------------------------
दरभंगा स्थित श्यामा मन्दिर जाहि प्रांगण में अवस्थित अछि वोहि परिसर क नाम अछि माधवेश्वर प्रांगण और वोहि अहाता क सबसे साबिक आ पैग माधवेश्वर महादेव मंदिर अछि जे अहाता मे प्रवेश करते दक्षिण मे अछि जेकर प्रवेश पूर्व से . मंदिर प्रांगण क प्रवेशद्वार पर घंटा टाँगल अछि . प्रवेश करैत इक पैग आँगन जाहि मे गंगा माता क मंदिर ओकर बाद मुख्य मंदिर क प्रवेश द्वार पर गणेश और हनुमानजी क आकृति बनल अछि ओकर बाद मुख्य गुमंदनुमा हॉल में शिवलिंग स्थापित छैथ . प्रवेश पूरब से और निकास दक्षिण द्वार से जे आँगन में निकलैत अछि . महादेव मंदिर के ठीक सोझे पोखैर जेकर मध्य में पाथरक जैठ और कछैर में बहुत सुन्दर पक्का घाट और बैसवा लेल दुनू बगली पक्का बेंच बनल और पीपर क गाछ . अहिठाम किछु काल बैसला से अनुभूति होयत अछि जे काशी क घाट पर बैसल छी . कहानी ई अछि जे
महाराज माधव सिंह (राजकाल १७७५ - १८०७ ) भौरागढ़ी , मधुबनी सँ अपन राजधानी दरभंगा स्थानांतरित केलाक बाद दरभंगा में इक शिवमंदिर क निर्माण क इक टा पोखरि यज्ञ क खुनबेलैत . महाराज माधव सिंह प्रातः सबसे पहिने माधवेश्वर महादेव क मंदिर क शिखरस्थ त्रिशूल क दर्शन करथि . मान्यता छैक जे मंदिर परक त्रिशूल क दर्शन सँ देवदर्शनक फल होयत छैक . महाराज परम शिवभक्त छलाह ओ सौराठ सभा में सेहो मंदिर , पोखैर , इनार खुनबेने रहैथ . वो अंतिम समय में काशीवास् करवा लेल चली गेला ओतहु मीरघाट धर्मकूप महल्ला में शिवमंदिर मंदिर बनौलैथ संगहि धर्मशाला क निर्माण सेहो करौलनि .

Friday, 9 July 2021

गौरवशाली अतीत



  शास्त्र ज्ञान के साथ मिथिला की संस्कृति में खेल का  प्रमुख स्थान रहा है. विवाह के बाद कोजगरा के भार में कन्या पक्ष के तरफ से  खेल की सामग्री यथा  उस ज़माने में घर घर में खेले जानेवाला पच्चीसी और शतरंज आदि खेल की सामग्री भेजी जाती थी.  उस ज़माने के प्रमुख घरों के  फर्श पर चौपड़ बना होता था या फिर शतरंज का बोर्ड .  गाँव गाँव में कुश्ती के लिये अखाड़ा होता था . घुड़ दौर पोखर कई गाँव में देखे जाते हैं  . नये खेलों के प्रति भी मिथिला के  लोगों में उत्साह होता था . मिथिला की ह्रदय स्थली दरभंगा कभी खेल सिटी के रूप में जाना जाता था . कुश्ती , कबड्डी , निशानेवाजी ,  फुटबॉल ,लॉन्ग टेनिस , टेबल टेनिस , शतरंज , पच्चीसी , पोलो , बिलियर्ड , घुड़सवारी ,स्क्वाश यहाँ की आम खेल थी जिसे  राज दरवार से संरक्षण प्राप्त था . भारत के दो लोकप्रिय खेल पोलो और फुटबॉल के नाम पर दरभंगा कप और दरभंगा शील्ड के साथ घुड़दौड़ में टर्फ क्लब के अधीन  दरभंगा रेस की शुरुआत १९३० के दशक में की गयी जिसमे देश – विदेश की टीम भाग लेती थी . पोलो को खेलों का राजा कहा जाता है . वर्तमान में ७० देशों में यह खेला जाता है. पोलो के सभी प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में दरभंगा की टीम भाग लेती थी Carmichael कप , एजरा कप आदि . दरभंगा टीम carmichael कप में विजयी हुई थी जिसकी चर्चा देश – विदेश की पत्र-पत्रिका मे हुई थी दरभंगा के टीम  में महाराजा कामेश्वर सिंह , राजबहादुर विशेश्वर सिंह , जे. पी. डेनवी, कप्तान माल सिंह जैसे ख़िलाड़ी थे जिन्होंने दरभंगा का नाम रौशन किया था . दरभंगा में पोलो  भले हीं अब अतीत की बात हो गयी हो ,  लहेरियासराय स्थित  पोलो मैदान का नाम बदलकर नेहरु स्टेडियम कर दिया गया हो  परन्तु अभी भी लोग पोलो मैदान के नाम को भूले नहीं हैं और जो हमें अपने गौरवशाली अतीत की याद दिलाती है .लोकप्रिय खेल फुटबॉल में दरभंगा शील्ड और महाराज कुमार विशेश्वर सिंह फुटबॉल चैलेंज कप देश स्तर पर नामी प्रतियोगिता थी. दरभंगा शील्ड भारतीय फुटबॉल एसोसिएशन्स से सम्बद्ध प्रतिष्ठित टूर्नामेंट थी  जिसमे देश के शीर्ष टीम मोहन बगान और ईस्ट बंगाल का अक्सर मुकाबला होता था . दरभंगा शील्ड के एक मैच की चर्चा आज भी फूटबाल जगत मे होती है जिसमे १९३०-४० दशक के मशहूर फुटबॉल और क्रिकेट ख़िलाड़ी अमिया कुमार देव ने फाइनल और सेमी फाइनल में ४ गोल किये थे और मोहन बगान ४-१ से जीता था .  इंडियन फुटबॉल एसोसिएशन की स्थापना दरभंगा में हुई थी . २०सितम्बर १९३५ में दरभंगा के यूरोपियन गेस्ट हाउस वर्तमान गाँधी सदन में मोउनुल हक की अध्यक्षता में हुई जिसमे महाराज कामेश्वर सिंह संरक्षक और राजा बहादुर विशेश्वर सिंह सचिव मनोनीत हुए थे . दरभंगा के राज मैदान और उसके बगल में स्थित विशेश्वर मैदान में अक्सर मैच होती रहती थी . हरियाली से अच्छादित मनोरम राज मैदान जिसके पश्चिम में राजकिला की ऊँची दिवार , दक्षिण मध्य में स्थित भव्य इंद्र भवन ,उत्तर मध्य में इंद्र भवन के सीध में भव्य तोरण द्वार और चारों ओर सड़क और पेड़ इस मैदान की खूबसूरती मे चार चाँद लगाती थी . देश के नामी टीम यहाँ खेलने आती थी . खेल देखने के लिये लोग उमड़ पड़ते थे . ताली की करतल ध्वनि  ऊँची किला की दिवार से प्रतिध्वनित होकर काफी देर तक   ख़िलाड़ी के हौसला अफजाई करती थी . फुटबॉल का जादू ऐसा यहाँ के लोगों के मन मिजाज पर चढ़ा कि पुरे मिथिला में यह खेल  छा गयी  . दरभंगा स्पोर्टिंग क्लब और राज स्कूल की टीम  यहाँ प्रतिदिन  अभ्यास करती थी .दरभंगा के संस्कृति मे खेलकूद इतना रच बस गया था कि युवराज जीवेश्वर सिंह के यज्ञोपवित के अवसर पर बांटी गई निमंत्रण कार्ड पर संगीत –नाटक आदि के साथ खेलकूद के आयोजन का भी जिक्र था जिससे स्पष्ट होता है कि मिथिला के संस्कृति में खेल का महत्वपूर्ण स्थान था . दरभंगा में विभिन्न खेलों के लिये पर्याप्त कीड़ा स्थल दरभंगा में था .कुश्ती के लिये अखाड़ा मिथिला के गाँव – गाँव में थे . उस ज़माने के पहलवान दुखहरण झा ,फुचुर पहलवान का बड़ा नाम था . दुखहरण झा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उन्होनो दारा सिंह को कुछ हीं मिनटों में पछाड़ दिया था .वे रुस्तमे हिन्द मंगला राय के शिष्य बन गये . लोहना का भुयां अखाड़ा आज भुयां स्थान है जहाँ आज मंदिर है . पहले पर्व त्यौहार के अवसर पर दंगल का आयोजन होता था . कुश्ती के क्षेत्र में दरभंगा के दंगल का जिक्र राष्ट्रीय स्तर पर  मिलता है . १९३८   में  बंबई (वर्तमान मुम्बई) में एक अंतर्राष्ट्रीय दंगल हुआ, जिसमें रूमानिया, हंगरी, जर्मनी, तुर्की, चीन, फिलिस्तीन आदि देशों के मल्लों ने भाग लिया। इस प्रतियोगिता में जर्मनी के मल्ल क्रैमर ने अजेय गूँगा को परास्त कर भारत को चकित कर दिया, किंतु उसे दरभंगा में पूरणसिंह बड़े से हार माननी पड़ी.(साभार bhartdiscovery.org)   


Tuesday, 25 February 2020

राजकुमार जीबेश्वर सिंह  ,  जन्म १९३०   . इनके अध्यापक म . म . उमेश मिश्र थे . विदेश से अध्ययन . १९३४ के भूकंप में आनंदबाग पैलेस में बाल बाल बचे  जब वे महल से सुरक्षित निकल रहे थे उसी समय महल  के टावर  में लगी घडी पोर्टिको के पास गिरी गयी थी . १९४१ में  उनके यज्ञोपवीत संस्कार में देश - विदेश के मेहमान जुटे थे   . यह आयोजन ऐतिहासिक रही  थी  जिसमे   राजा महाराजा के साथ - साथ डा . राजेंद्र प्रसाद , डा . सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी पधारे थे .  उक्त समारोह में इन्हे दरभंगा राज के युवराज   के रूप में  पेश किया गया था  . १९४८ में इनकी शादी राजकुशोरी जी से हुई  थी जो शारदा कानून के विवाद में आ गयी . फिर तो विवाद ने उन्हें ऐसा घेरा कि राजकाज से अलग होकर अध्यात्म   में लीन हो गये . करहिया ग्राम पंचायत के मुखिया और ट्रस्ट के मैनेजर  श्री कांत चौधरी का ३० नवंबर १९६६ को राजनगर  ट्रस्ट ऑफिस के पोर्टिको में  गोली लगने से मृत्यु  हो गयी . उस  दिन बुधवार था और राजनगर में हाट का दिन था . राजकुमार जीबेश्वर सिंह खांकी कोट जिसके कॉलर फर का था और ऊनी पेण्ट , पावं में काला बूट और हाथ में राइफल  लिए राजनगर के अपने निवास से कुछ देर पहले  ट्रस्ट ऑफिस आये थे .  राजकुमार पर ३०२ का मुकदमा चला और जीबेश्वर सिंह को संदेह का लाभ मिला और बरी हो गए .  पटना उच्च न्यायलय ने १९७१ में अपने फैसले में May be true और Must be  true  के  अंतर को  देखा . उसके बाद दरभंगा के बांग्ला नंबर १ , गिरीन्द्र मोहन रोड में दूसरी पत्नी के साथ रहने लगे . और वहीँ उनकी मृत्यु हुई और माधवेशवर में अंतिम संस्कार हुई .

Wednesday, 11 December 2019

१९३४ के भूकंप के बाद दरभंगा इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट एक्ट के तहत शहर को विकसित नगर के रूप में पुनर्निर्माण का कार्य तो पूर्ण नहीं हो सका लेकिन ट्रस्ट एरिया के अधीन गोल मार्किट जिसमे अभी सी . एम् . साइंस कॉलेज है और टाउन हॉल के रूप में दो धरोहर हमारे सामने हैं . १९३८ को इसका निर्माण उस ज़माने के जानेमाने आर्किटेक्चर मेसर्स बल्लरडी ,थॉमसन व मैथ्यूज की डिजाइन को ठेकेदार ए. के. सरकार एंड कंपनी ने शानदार भवन का रूप दिया था। गोल मार्किट के डिज़ाइन से मेल खाते हुए उसके सामने दो बड़े गुंबद वाली भव्य इमारत टाउन हॉल का निर्माण हुआ , खुला प्रांगण, ऊंची छत वाला बड़ा हवादार हॉल, कार्यक्रम की प्रस्तुति के लिए बना स्टेज, हॉल के चारों ओर बड़ी-बड़ी खिड़की इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देता था। इस हॉल में २७ जुलाई १९५२ में मिथिला केसरी बाबू जानकीनन्दन सिंह ने भारतीय गणतंत्र के अधीन बिहार राज्य से अलग मिथिला राज्य की मांग को लेकर ऐतिहासिक मीटिंग की थी और सर्वसम्मति से मिथिला राज्य के लिए प्रस्ताव पारित की गयी फिर उस प्रस्ताव के क्रियान्वयन हेतु २६ जुलाई १९५३ को इस टाउन हॉल में सभा हुई थी . खूबसूरत पार्क, वाटर फाउंटेन, शांत वातावरण, जगमग रोशनी सब कुछ यहां मौजूद थे। ७ फ़रवरी १९३८ को इस भवन का शिलान्यास बिहार के गवर्नर द्वारा किया गया था तथा २ नवम्बर १९३८ को श्री अनुग्रह नारायण सिंह , मंत्री  वित्त एवं लोकल सेल्फ गवर्नमेंट , बिहार के द्वारा लोगों को समर्पित कि गयी थी . १९३४ के भूकंप से पहले इस टाउन हॉल का नाम विक्टोरिया मेमोरियल टाउन हॉल था जो भूकंप मे पुर्णतः क्षतिग्रस्त हो गया था . १९६३ मे इस टाउन हॉल का नाम भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा .  राजेन्द्र प्रसाद के देहांत के बाद उनके याद मे राजेन्द्र भवन रखा गया . 

Tuesday, 22 October 2019



जिस कार की इतिहास की चर्चा आज भी होती है .
-----------------

यह शानदार ऑटोमोबाइल महाराजा बहादुर सर कामेश्वर सिंह के स्वामित्व में था, जिन्हे दरभंगा के महाराजा के रूप में जाना जाता था।  महाराजा कामेश्वर   सिंह भारत के सबसे धनी शासकों में से एक थे, जिन्होंने भारत और विदेशों में अपने विशाल व्यापारिक हितों के माध्यम से एक बहुत बड़ा  नाम  अर्जित किया।  वे राज दरभंगा  के अंतिम  शासक होने का गौरव रखते हैं, क्योंकि भारत ने 1940 के दशक के अंत में स्वतंत्रता प्राप्त की थी और उन्होंने  अपना  उत्तराधिकारी   किसी को नहीं बनाया और अपनी  सम्पति  का  एक  तिहाई  हिस्सा जनकल्याणार्थ दे दिया ।
 यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि महाराजा इस विशेष चेसिस के मूल मालिक नहीं थे।  यह सम्मान लंदन के जोसेफ कोपिंगर को जाता है, जिन्होंने 1936 के सितंबर में कार की डिलीवरी ली थी, ।  लेकिन उसी वर्ष के दिसंबर तक, कार को रोल्स-रॉयस को वापस कर दिया गया और जिसे दरभंगा के महाराजा को बेच दिया गया, जिन्होंने थ्रूप्प एंड मबेरली को इस बेहद खूबसूरत और साहसी कोचवर्क का निर्माण करने के लिए कमीशन किया, जो सिर्फ दो फैंटम III चेसिस में से एक था।   यह ठीक से ज्ञात नहीं है कि श्री कोपिंगर ने अपने फैंटम III को  इतनी जल्दी बेच क्यों दिया . 1938 में इसे भारत में भेजने से पहले, महाराजा ने अपनी इस कार  का आनंद लेते हुए कार से यूरोप का दौरा किया। महाराज गोलमेज सम्मलेन में भाग लेने लंदन में थे .   जब यह  कार भारत में आया, तो यह भारत में भेजा जाने वाला केवल दूसरा  फैंटम III था।  1962 में उनकी मृत्यु के समय  तक यह कार उनकी पसंदीदा कार थी .