Wednesday 17 May 2017

WARRIOR OF SIRKAR TIRHUT

The history of the Royal family shows that the descendants of Mm Mahesh Thakur often engaged in military operations to subjugate generally the neighbouring chiefs and at times against greater powers. Nawab Ali Vardi Khan , who was always in need of money owing to the great wars he has engaged in during the whole of his eventful career and was in consequence bent upon reducing the Hindu Chiefs of Bihar and Orissa, attacked Maharaja Raghava Singh who fought against him . An account of this fight is found in the Riyaz- Us- Salatin by Abdus Salam,296, Calcutta ,1802 Edition:--- " And being aided with the Afghans, Ali Vardi advanced with his forces against the tracts of the Rajas of Bettiah and Bhowara ( the capital of Sirkar Tirhut) who were refractory and trubulent. Their regions had never previously been trod by the feet of the armies of former Nazims, nor had their proud heads ever bent before to any of the former Subadars. Indeed they had never before paid the Imperial revenues and taxes. After fighting with them incessantly, Ali Vardi Khan became victorious and triumphant. Raiding and pillaging their tracts, Ali Vardi Khan carried off a large booty amounting to several lakhs in specie or other effects, and setting with the Raja the amounts of tribute, presents and the Imperial revenue, he raised an immense sum. " In lieu of the tribute which used to be paid to the Moghul Emperor very irregularly or not at all, the Nawab fixedit at one lakh of rupees per annum of the entire Sirkar Tirhut. Maharaja Raghava Sing carried operations against Bhup Singh, a Chief of Nepal territory, who had taken possession of  Parganah Panch Mahal (in Muzaffarpur district).Bhup Singh was defeated in a battle and killed: a contempory account of this engagement in verse is still current in Mithila. He  fought three more battles. His son , Raja Narendra Singh , had to fight the Subadar of Patna who had sent an army under Fouzdar Bhikari Singh , Salawat rai, and  Bhagat Singh. A sanguinary battle took place between the two armies at Kandarpighat  in which two of the Subadars Generals were killed and a  third ( Bhikhari  Mahta ) sought safety in flight.  A vivid account of this battle was written in the form of Kavya by Lala Kavi , brought to light by Sir George Grierson , the famous Orientalist ; and two other popular ballads are also extant . The military officers of Raja Narendra Singh who led in that battle were rewarded with jagirs which are still in the possession of their descendants. The family history written by his contemporary , Gopala Kavi , mentions that Maharaja Narendra Singh was asked by the Emperor Muhammad Shah to render service by marching against two Muhammadan Chiefs on the North- Western Frontier, that his faithful services were appreciated by the Emperor and that "Svatantra " raja privileges were given to him by the Emperor in reward,  All the raja of Sirkar Tirhut upto the time of Raja Madho Singh were always styled in their official documents are "ever victorious in battle. " a style then used only by those princes who had military power.
Bhowara Fort 
Kandarpighat Battle Memorial

Sunday 14 May 2017

आज के ज़माने में राजा महाराजा के स्टेचू से भारत के पुराने  इतिहास और संस्कृति  का बोध होता है  और उस इतिहास और उस रियासत को जानने की ललक लोगों में  पैदा होती है  जब हम दुसरे शहर में हर जगाह उनके स्टेचू देखता हूँ तो दरभंगा याद आने लगता है मैं कुछ दिन पूर्व  बैंगलोर में था  कुबन पार्क हो या लाल बाग सब जगह उनके मूर्ती लगे हैं l एक हम हैं कि  राजनेता के मूर्ती लगाते हैं  जिनका दरभंगा से कोई सम्बन्ध नहीं है और न कोई योगदान , जिसे देख कर लोगों में किसी तरह का बोध नहीं आता l दरभंगा  प्रिंसली स्टेट हैं हमें  दरभंगा के  राजा- महाराजा की स्टेचू लगानी चाहिये इससे हमारे शहर को एक पहचान बनेगी और मिथिला की संस्कृति से लोग परिचित होंगें l सच मानिये ये महाराजा हमारे नेता से कहीं अच्छे थे जिन्होंने अपने राज के विकास में बड़ी योग्यदान दी l  खेलकूद , संगीत को बढ़ावा दिया , पुस्तकालय - स्कूल - कॉलेज बनवाया , कल - कारखाने लगाये , चिकित्सालय बनवाये ,मंदिर - तालाब बनवाये  जो भी कार्य किया उच्च कोटि की l उनकी सोच बड़ी थी ,दिल बड़ा था ,प्रजा की प्रति हमदर्दी थी l हमारी मांग होगी कि दरभंगा हवाई - अड्डा का नाम महाराजा कामेश्वर सिंह बहादुर जिन्हें दरभंगा, मधुबनी , पूर्णिया  हवाई अड्डा का निर्माण का श्रेय है तथा बिहार के पहले एविएशन कंपनी खोलने और वायु सेवा शुरू करने का श्रेय जाता है,  के नाम पर हो l

Saturday 13 May 2017

हिन्दू मुस्लिम भाईचारा का मिसाल दरभंगा राज

दरभंगा राज परिसर यानि रामबाग किला और वर्तमान कामेश्वर नगर जब आप टहलने या घुमने जायेंगें तो हर जगह मुख्य स्थान पर आपको मस्जिद ,मकवारा दिखने को मिलेंगें यहाँ तक कि लक्ष्मिश्वर पैलेस के बगल में मकवारा देख कर सोचेंगें कि एक कट्टर धार्मिक  ब्राह्मण राजा  के निवास  के बगल में यह मकवारा कैसे ठीक उसी तरह मस्जिद को सहेजते बचाते किला का निर्माण कट्टर हिन्दू और मुस्लिम के गले नहीं उतरता l यह इसीतरह है जैसे अकवर के महल फतेहपुर सिकरी  में तुलसी चौरा  l  
बहुत कम लोगों को पत्ता है कि मुग़ल सल्तनत के अंतिम  वारिस का मकवारा दरभंगा के तत्कालीन महाराज ने दरभंगा में बनवाया था और अंग्रेज  से बचा कर दरभंगा के काजीमुहल्ला यानि आजके कटहलवाड़ी में मकान और इबादत करने के लिए मस्जिद बनाया था l जब अंग्रेज १८५७ के ग़दर के बाद बहुदुर शाह जफ़र के परिवार का खून का प्यासा हो गया था तब दिल्ली से भागने के बाद जैबुरुद्दीन बहादुर की मुलाकात दरभंगा के महाराज लक्ष्मिश्वर सिंह से हुई थी ,महाराजा ने उन्हें दरभंगा आने का आमंत्रण दिया और पूर्ण सुरझा का भरोसा दिलाया उसके अगले साल जैबुरुद्दीन बहादुर दरभंगा तसरिफ लाये l उनके रहने के लिए राज परिसर से सटे काजी मोहल्ला में उनके रहने के लिए घर और इबादत के लिए मस्जिद का निर्माण राज ने कराया  बहादुर शाह जफ्फर का यह वारिस अपने जीवन के अंतिम २९ वर्ष दरभंगा में बिताये जिसमे उन्होंने तीन किताब लिखी l मौज ए सुल्तानी उनमे एक है l १९१० में उनके देहांत हो गया दिग्घी टैंक के किनारे राजकिय सम्मान के साथ दफनाया गया और १९१४ में तत्कालिन दरभंगा के महाराज भारत धर्म महामंडल  के प्रमुख रमेश्वर सिंह ने लाल पत्थर का खुबसूरत मजार बनवाया l  
 गौहर  जान और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान राज परिवार
 के मांगलिक अवसर पर  आपनी प्रस्तुति देते थे l ये कम ही लोगों को मालूम होगा कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के शिखर पर पहुंची गौहर जान ठुमरी और भजन गाया करती थी l  गौहर जान दझिण एशिया की पहली गायिका थी जिनके गाने ग्रामोफ़ोन कम्पनी ने रिकॉर्ड किये l दरभंगा राज ने जहाँ  अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय को  सहायता दी  वहीँ हिन्दू विश्वविद्यालय को संरंझन l दरभंगा में जहाँ मंदिरों को वित्तीय साधन उपलब्ध कराये गये वहीँ करवला को चंदा दी जाती रही l 

Wednesday 10 May 2017

कुछ अपनी बात

बचपन से राजपरिवार में आने जाने का सौभाग्य मिला l बड़ी महारानी को बडकी काकीजी ,छोटी महारानी को छोटकी काकीजी ,महाराज को दादा, महाराज की इकलौती बहन को पिसियाजी  और राजकुमार शुभेश्वर सिंह को शुभु भैजी कहा करते थे l रामबाग में बड़ी महारानी हमेशा भोज दिया  करती थी जिसमे हमारे परिवार को निमंत्रण जरुर रहता था भला रहे भी क्यों नहीं हमारी दादी को काफी आदर था उस परिवार में    वह महाराजा के मामी थी l राजमाता साहेब के ज़माने से हीं उनकी आदर था l राजमाता साहेब हमारे दादाजी यानि बाबा के छोटी बहन थी l मैं जब दो साल का था तभी महाराजा का निधन हो गया हमसे बड़े भाई जो चार पांच साल के थे महाराजा के साथ हीं रहते थे महाराज दरभंगा से बाहर कोलकाता , दिल्ली ,शिमला जहाँ भी जाते थे तो मेरी दादी और बड़े भाई साथ रहते थे l दादी कहती थी कि मुझसे छोटे भाई के जन्म के बाद महाराज ने कहा था कि अब रमण यानि मुझे भी अपने पास ले आयेंगें लेकिन वह सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं हो सका l मेरे परिवार से स्नेह का कारण यह था कि महाराजा मेरे दादाजी यानि अपने बड़े मामा का बहुत आदर करते थे l दादी कहती थी कि महाराज उनका इतना लिहाज करते थे कि जब एकवार वे महाराजा से मिलने पहुंचे थे तो महाराज उस वक्त सिगार पी रहे थे जैसे हीं मामाजी को देखे तो सिगार पीठ के पीछे छिपा लिया जिसके कारण जिस सोफे पर बैठे थे वह जल गया था l इसीतरह एकवार मेरे दादाजी अपनी कार से महाराजा से मिलने आये . महाराजा ने उनके सर पर चोट  देख कर पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा कि कार में लग गयी थी l दरअसल हुआ यह था कि दादाजी लम्बे कद काठी के थे और कार छोटी थी l जब दादाजी विदा हुए तो उनकी  कार पार्किंग की जगह पर नहीं थी वे अचकचा कर इधर उधर देखने लगे महाराजा समझ गये उन्होंने सामने खड़ी कार पर बैठ जाने का इशारा किया l वह कार दादाजी के कार से बड़ी थी पेनटैक् जो हमेशा के लिए दादाजी को दे दिया गया l
मेरे पिताजी एक साल के हीं थे कि दादाजी गुजर गये महाराजा ने इस गाड़ी को बेचवा कर उस रूपये को बाबूजी के नाम से टी - स्टेट में निवेश करवा दिया था l मेरे दादाजी के ड्राइवर गुरूजी जो मेरे हीं गाँव के कर्ण कयास्थ थे बाद में दरभंगा राज के एक्सक्यूटर पंडित लक्ष्मीकांत झा के ड्राईवर थे l मेरी दादी जिन्हें हमलोग दाई कहते थे ने एक वाकया सुनायी थी कि भारत पाकिस्तान के बंटवारे के समय वह महाराजा के साथ शिमला से महाराजा के सैलून से  जब  साथ साथ आ रही  थे  तो अंबाला से पीछे एक मुस्लिम जो जान बचाने का गुहार कर रहा था उसे   महाराजा ने अपने सैलून में पनाह दे दी थी जिसके कारण अंबाला में आन्दोलनकारियों ने काफी बबाल मचाया लेकिन महाराजा के ए डी सी कर्नल माल सिंह ने स्थिति को संभाला था l

   मेरे पिताजी का सिलेक्शन भारतीय थल सेना में कप्तान में हुआ था लेकिन एकलौता संतान रहने के कारण दादी की इच्छा नहीं थी l  उन्होंने महाराज से मेरे पिताजी के विषय में बात की महाराजा ने बुलाकर कहा के बुधन से भेंट कर लो और महाराज के कोलकाता जाने वाली पार्टी में उनका टिकट ले लिया  गया और महाराज के कोलकाता पहुँचने से पूर्व महाराज के पार्टी के साथ वे कोलकाता पहुँच गयेl महाराज जहाँ भी बाहर जाते थे उससे पहले महाराजा की पार्टी पहले पहुँचती थी l  कोलकाता के दरभंगा एविएशन में मेरे चाचाजी जिन्हें हमलोग काकाजी कहते हैं मैनेजर के पद पर थे उन्ही के अधीन दरभंगा एविएशन में पिताजी की नौकरी लग गयी l महाराजा जब अंतिम बार कोलकाता आये थे तो उन्होंने पिताजी को कहा कि अब द्वारिका यानि हमारे काकाजी को दरभंगा में और तुम्हे यहाँ उनका काम सम्हालना है लेकिन ऐसा हो नहीं सका और दरभंगा लौटने के बाद महाराजा का निधन का समाचार मिला . समाचार सुनते हीं मेरे चाचाजी के साथ  पिताजी तुरंत दरभंगा वापस लौट गये और दरभंगा में हीं रह गये  l चाचाजी दरभंगा राज के राजकाज में व्यस्त हो गये और पिताजी दरभंगा में हीं राज मुख्यालय  में नौकरी करने करने लगे l चाचाजी बाद में दरभंगा राज के ट्रस्टी बने और पिताजी लैंड डिस्पोजल ऑफिसर और दोनों भाई गिरीन्द्र मोहन रोड के बंगला न . ५ और १० जो  सड़क के आमने सामने था, रहने लगे इसी रोड के बंगला न. १ में कुछ दिन के बाद राजकुमार जीवेश्वर सिंहजी आकर रहने लगे  l हमारे बगल के बंगला में जिसमे आचार्य रमानाथ झा रहा करते थे उसमे मंझले राजकुमार अभी  रहते हैं l बंगला न . ८ जो उसके बगल में था उसमे दरभंगा राज के सहायक  मैनेजर पंडित दुर्गानंद झा रहते थे और उनसे कुछ आगे ठीक हराही के किनारे डैनवी कोठी में दरभंगा राज के मैनेजर मि . डैनवी पहले  रहा करते थे l  मेरा बचपन इसी गिरीन्द्र मोहन रोड में बिता और नरगोना पैलेस ,रामबाग  बड़ी महारानी और छोटी महारानी के यहाँ आना जाना बना रहा l राजकुमार शुभेश्वर सिंह से  मेरे पिताजी का अन्तरंग सम्बन्ध था उनका मेरे घर पर आना जाना रहता था और उनके बुलावे पर हमलोग क्रिकेट खेलने रामबाग जाते रहते थे l क्रिकेट, टेबल टेनिस ,  बिल्ल्यार्ड  के वे अच्छे खिलाडी थे l हमलोगों से खुलकर बात करते थे और हमेशा भेंट स्वरुप  देते रहते  थे l जब मै बी . कॉम में पढ़ रहा था तो उन्होंने रामेश्वर ठाकुर जो प्रख्यात सी . ए थे और बाद में नेहरु परिवार से घनिष्ट सम्बन्ध रहने के कारण लोकसभा के सदस्य और केन्द्रिय मंत्री बने ,से मेरी मुलाकात कराते हुए मुझे सी ए ठाकुर जी के फार्म में करने का सुझाव दिए थे इसी सिलसिले में मेरी मुलाकात करायी गयी थी l  

Tuesday 9 May 2017

कृतित्व कभी मिटती नहीं

दरभंगा राज के पतन के बाद लोगों के जनमानस से करीब करीब लुप्त हो चुके  उनका कृतित्व के जगह  कई तरह की भ्रान्ति ने अपना स्थान बना लिया  था l  देवी कृपा से सर्वप्रथम दरभंगा राजपरिवार के शमशान  माधवेश्वर परिसर में महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह की चिता पर दरभंगा राज के अंतिम महाराजाधिराज डा . कामेश्वर सिंह द्वारा बनवाये गये लालपथर का भव्य मंदिर जिसमे माँ श्यामा  काली की विशाल  प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं , ने लोगों को आकर्षित करना शुरू किया और लोगों के बीच आस्था का मुख्य केंद्र हो गया l  इसी के साथ भारत के महान साधक महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह की चर्चा होने लगी और राजनगर में बनाये गये उनके भव्य महलों और मंदिरों से युक्त परिसर की भूकंप से  हुई त्रासदी पर ध्यान गया  फिर बिहार के शताब्दी वर्ष में चौरंगी पर स्थित विशाल आदमकद मूर्ति पर लोगों का ध्यान गया फिर तो दरभंगा राज की चर्चा लोगों की जुबान पर आ गयी और दरभंगावाशी को दरभंगा राज पर फख्र होने लगा और फेसबुक के माध्यम से दरभंगा राज से सम्बंधित सकारात्मक तथ्य संग्रह होते चले गये जिसके सामने सब बौने नजर आने लगे l लोग दरभंगा राज के धरोहर को संरझित करने की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं और इस राज परिवार के कृतित्व ने पुनः इसे जनमानस में ला दिया l