महाराजा रमेश्वर सिंह ,दरभंगा ,मिथिला एक असाधारण देवी रहस्य के जानकार और साधक तथा देवी रहस्य के विज्ञान और तकनिकी के प्रतिपादक थे .के प्रति दिन का रूटीन था कि वे २ बजे पूर्वाहन में उठकर बिछावन पर हीं दुर्गा सप्तसती का पूरा पाठ पूर्ण करने के उपरांत ३.३० बजे स्नान करने के बाद संध्या वंदन और सहस्त्र गायत्री जप तदुपरान एक मन चावल से पिण्ड दान फिर ब्रह्म मुहूर्त में पार्थिव शिवलिंग की पूजा के बाद देवी भगवती के मंदिर के लिए प्रस्थान करते थे वहां तांत्रिक विधि से तंत्र संध्या ,पात्रस्थापन के बाद भगवती काली की उपासना आवरण पूजा ,जप ,पञ्चांग पाठऔर उसके बाद पुष्पांजलि के साथ ककरदी सहस्त्रनाम उसके बाद कुमारी ,सुवासिनी , बटुक का पूजन तर्पण और महाप्रसाद लेने के बाद एक घंटा आराम के बाद ११ बजे से ३.३० बजे तक राजकाज देखते थे l उसके बाद स्नान करने के बाद वैदिक संध्या वंदन और गयात्री जप और प्रदोष समय के अन्तराल में पार्थिव पूजा संपन्न करते थे l रात्रि में वे सांगोपांग निशार्चन ,१०८ ब्राह्मण सामूहिक रूप से दुर्गा सप्तसती का पाठ और ५१ ब्राह्मण से रुद्राभिषेक संपन्न कराते थे l महाराजा अपनी पूरी जीवन महानुष्ठान में परिवर्तित कर दिये थे l वे काफी पढ़े लिखे और महान विद्वान थे l अंग्रेजी ,फ्रेंच ,बंगाली , मैथिलि ,हिंदी ,संस्कृत ,फारसी के विशेषज्ञ थे l वे तंत्र विज्ञान के मास्टर के साथ वेदान्त, सांख्य योग . व्याकरण के अच्छे जानकार थे l
तीन- चार दिनों के इस भ्रमण में विदेशी विद्वानों ने तंत्र साधना के वैज्ञानिक सत्य को आत्मसात करना प्रारम्भ कर दिया था। इसलिए आज प्रातः इस विशेष सम्मेलन का प्रारम्भ हुआ तो वे भी उत्साहपूर्वक भागीदारी कर रहे थे। इसकी अध्यक्षता का भार पं. शिवचन्द्र भट्टाचार्य पर था, जिन्होंने स्वयं महाराज को तन्त्र साधना के लिए विशिष्ट मार्गदर्शन दिया था। इसी के साथ वह जॉन वुडरफ के भी दीक्षा गुरु थे। महाराज जी की प्रेरणा से ही सर जॉन वुडरफ ने पण्डित शिवचन्द्र भट्टाचार्यसे शक्ति साधना की दीक्षा ली थी। वह कह रहे थे- तन्त्र दरअसल सृष्टि के विराट अस्तित्त्व में एवं व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व में प्रवाहित विविध ऊर्जा प्रवाहों के अध्ययन- अनुसन्धान एवं इनके सार्थक सदुपयोग का विज्ञान है। तंत्र मानता है कि जीवन एवं सृष्टि का हर कण शक्ति से स्पन्दित एवं ऊर्जस्वित है। यह बात अलग है कि कहीं यह शक्ति प्रवाह सुप्त है तो कहीं जाग्रत्। इस शक्ति की अभिव्यक्ति यूं तो अनन्त रूपों में है, पर इसकी मूलतः दशमहाधाराएँ हैं, जिन्हें दश महाविद्या कहा जाता है।
पं. शिवचन्द्र भट्टाचार्य तन्त्र के मूलभूत वैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित कर रहे थे। वे बता रहे थे कि विराट् ब्रह्माण्ड में प्रवाहित ये शक्ति प्रवाह व्यक्ति में प्राण प्रवाह के रूप में प्रवाहित हैं। ब्रह्माण्ड में इन्हीं प्रवाहों से सृष्टि सृजन हुआ है। इसी के साथ उन्होंने निवेदन किया कि व्यक्ति में प्राण प्रवाह के रूप में प्रवाहित इन शक्ति धाराओं का स्वरूप विवेचन महाराज रमेश्वर सिंह करेंगे एवं ब्रह्माण्ड व्यापी इनके स्वरूप की विवेचना स्वयं महापण्डित सुब्रह्मण्यम् शास्त्री करेंगे। आचार्य शिवचन्द्र के इस निर्देश को थोड़ा संकोचपूर्वक स्वीकारते हुए महाराज उठे। उनका भरा हुआ गोल चेहरा, रौबदारमूँछे, औसत कद, गेहुँआ रंग, माथे पर श्वेत भस्म का ऊर्ध्व तिलक उन्हें भव्य बना रहे थे। उन्होंने कहना प्रारम्भ किया- योग शास्त्र में वर्णित पाँच प्राण एवं पाँच उपप्राण ही दरअसल व्यक्ति के अस्तित्त्व में व्याप्त दश महाविद्याएँ हैं, जो व्यक्ति को विराट् से जोड़ती हैं। इनमेंआदिविद्या महाकाली एवं तारा अपान एवं इसके उपप्राण कूर्म के रूप में जननेन्द्रिय में वास करती हैं। षोडशी एवं भुवनेश्वरी प्राण एवं इसके उपप्राण नाग के रूप में हृदय में स्थित है। भैरवी एवंछिन्नमस्ता उदान एवं देवदत्त के रूप में कण्ठ स्थान में निवास करती हैं। धूमावती एवं बगलामुखीसमान एवं कृकल के रूप में नाभि प्रदेश में स्थित हैं। मातंगी एवं कमला व्यान एवं धनञ्जय के रूप में मस्तिष्क में अवस्थित हैं। ऐसा कहकर महाराज थोड़ा रूके और बोले- मैंने महामाया के इन रूपों का स्वयं में इसी तरह से साक्षात्कार किया है। महाराज के अनुभव परक ज्ञान ने सभी को विमुग्ध किया। आचार्य शिवचन्द्र का संकेत पाकर महाराज के बैठने के पश्चात् महापण्डित सुब्रह्मण्यम् शास्त्री उठे। इन्होंने अभी कुछ वर्षों पूर्व महाराज रमेश्वर सिंह को तन्त्र साधना की साम्राज्य मेधा नाम की विशिष्ट दीक्षा दी थी। उनका स्वर ओजस्वी था, उन्होंने गम्भीर वाणी में कहना प्रारम्भ किया- इस अखिल ब्रह्माण्ड में आदिविद्यामहाकाली शक्ति रात्रि १२ से सूर्योदय तक विशेष सक्रिय रहती हैं। ये आदि महाविद्या हैं, इनके भैरव महाकाल हैं और इनकी उपासना महारात्रि में होती है। महाविद्या तारा के भैरव अक्षोम्य पुरुष हैं, इनकी विशेष क्रियाशीलता का समय सूर्योदय है एवं इनकी उपासना का विशेष समय क्रोधरात्रि है। षोडशी जो श्रीविद्या है, इनके भैरव पञ्चमुख शिव हैं। इनकी क्रियाशीलता का समय प्रातःकाल की शान्ति में है। इनकी उपासना काल दिव्यरात्रि है। चौथी महाविद्या भुवनेश्वरी के भैरव त्र्यम्बकशिवहैं। सूर्य का उदयकाल इनका सक्रियता काल है। इनकी उपासना सिद्धरात्रि में होती है। पाँचवीमहाविद्या भैरवी है इनके भैरव दक्षिणामूर्ति हैं। इनका सक्रियता काल सूर्योदय के पश्चात् है। इनकी उपासना कालरात्रि में होती है। छठवी महाविद्या छिन्नमस्ता है, इनके भैरव कबन्धशिव हैं। मध्याह्न सूर्य का समय इनका सक्रियता काल है, इनकी उपासना काल वीररात्रि है। धूमावती सातवीं महाविद्या हैं, इनके भैरव अघोररूद्र हैं। मध्याह्न के पश्चात् इनका सक्रियता काल है एवं इनकी उपासना दारूण रात्रि में की जाती है। बगलामुखी आठवी महाविद्या हैं, इनके भैरवएकवक्त्र महारूद्र हैं। इनकी सक्रियता का समय सायं हैं। इनकी उपासना वीररात्रि में होती है। मातंगीनौवीं महाविद्या है, इनके भैरव मतंग शिव हैं। रात्रि का प्रथम प्रहर इनका सक्रियता काल है। इनकी उपासना मोहरात्रि में होती है। भगवती कमला दशम महाविद्या है। इनके महाभैरव सदाशिव हैं, रात्रि का द्वितीय प्रहर इनका सक्रियता काल है। इनकी उपासना महारात्रि में की जाती है। इन दशमहाविद्याओं से ही सृष्टि का व्यापक सृजन हुआ है। इसलिए ये सृष्टिविद्या भी हैं। इसी के साथ महाराज द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में तन्त्रविज्ञान की व्यापक परिचर्चा होते- होते सांझ हो आयी। महाराज की विशेष अनुमति लेकर उनकी सायं साधना के समय जॉन वुडरफ के साथ आए वैज्ञानिकों ने महाराज का विभिन्न यंत्रों से परीक्षण किया। इस परीक्षण के बाद उन्हें आश्चर्यपूर्वक कहना पड़ा- कि तन्त्र साधक में प्राण विद्युत् एवं जैव चुम्बकत्व सामान्य व्यक्ति की तुलना में आश्चर्यजनक ढंग से अधिक होता है। उनके इस कथन पर महाराज रमेश्वर सिंह हँसते हुए बोले- दरअसल यह दृश्य के साथ अदृश्य के संयोग के कारण है। इसका वैज्ञानिक अध्ययनज्योतिर्विज्ञान के अन्तर्गत होता है। |
आपके नजर में कोई बुक हो दरभंगा महाराज राज से संबंधित तो बताएं
ReplyDeleteआपके द्वारा उपलब्ध यह जानकारी हम साधको के लिए स्वर्ण से भी कीमती है अतः निवेदन है इस जानकारी का स्त्रोत उपलब्ध करवाए साधना क्षेम बडा लाभ होगा
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