बागमती के किनारे आम और लीची बागान सहित ६१ बीघा जमीन महाराजा कामेश्वर सिंह ने मिथिला रिसर्च इंस्टिट्यूट के स्थापना के लिए दान दिए . उक्त इंस्टिट्यूट की स्थापना देश के प्रथम राष्ट्रपति डा . राजेंद्र प्रसाद के करकमलों द्वारा १९५१ में दरभंगा के कबराघाट के महेशनगर परिसर में हुआ . महेशनगर के नाम को लेकर एक मजेदार वाकया है .उन दिनों बिहार सरकार में एक मंत्री महेश सिंह हुआ करते थे . लोगों को महेशनगर उनके नाम पर होने की ग़लतफ़हमी हो गयी जिसको लेकर तत्कालीन सी ऍम श्री कृष्ण सिंह खुश नहीं थे . सी ऍम के ग्रुप ने महेश सिंह के नाम पर इस इंस्टिट्यूट का नाम रखने पर विधान सभा में क्वेश्चन किया जब बतलाया गया कि महेश नगर महाराज के पूर्वज म म महेश ठाकुर के नाम पर है तो विधान सभा में हंसी फुट पड़ी थी .
It is to the peculiar culture of Mithila where since the time of Janaka kings delighted in being learned like priests and priests became kings, where kings and queens preferred to be scholars-- it is to that peculiar history which ' does not centre round valiant feats of arms, but round Courts engrossed in the luxurious enjoyment of literature and learning' ,Mithila still holding Courts where poetry and learning were alone honoured.( Journal of the Bihar and Orissa Research Society,VI ,258.)
Wednesday, 30 August 2017
कोर्ट ऑफ़ वार्डस के दौरान महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह मात्र दो साल के थे उन्हें बहुत ही योग्य सहृदय इंग्लिश शिझक मिस्टर चेस्टर मैनहटन ( Macnaghten ) से शिझा मिली . चेस्टर को उसके बाद राजकुमार कॉलेज , राजकोट का पहला प्रिंसिपल बनाया गया . यह राजकोट के केंद्र में स्थित है। राजकुमार कॉलेज, इस शहर का सबसे पुराना कॉलेज और शिक्षा केंद्र है। इसकी स्थापना, कठियावाड शाही परिवार के युवाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी ताकि वह सफल शासक और अच्छे इंसान बन सकें। यह कॉलेज 1868 में अस्तित्व में आया और आधिकारिक तौर पर इसका उद्घाटन 1870 में किया गया.यह २६ एकड़ में है . इसमें पोरबंदर , कच्छ , भावनगर , नवानगर के महाराजकुमार ने शिझा ग्रहण की . महाराजा रंजीत सिंहजी (क्रिकेट ) भी विद्यार्थी रहे . वर्तमान में इसकी फ़ीस ४- ६ लाख प्रति वर्ष है .
महाराज लक्ष्मिश्वर सिंह की स्टेचू
उग आये पत्तों की झुरमुट और बी डी डी बाग़ पर लगातार ट्रैफिक इसे दृश्य से ओझल करता है फिर भी यदि मौका मिले तो जरा ठहर कर कोलकाता के डलहौज़ी स्क्वायर के दझिण - पश्चिम कोना में दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह की स्टेचू को जरूर देखें . प्रशंसा किया बिना नहीं रहेंगें . यह सफ़ेद संगमरमर की मूर्ति अन्य मूर्ति से अलग है . अन्य मूर्ति जहाँ खड़ी मुद्रा में है वहीँ यह पलथी मार कर अलंकृत सिंहासन पर दाएं हाथ में तलवार , बांये में ढाल , शिर पर पारिवारिक रत्न से सजी पाग तथा गले में भारत साम्राज्य का शूरवीर नाईट कमांडर का चेन पहने हुए है . एक एक विवरण बखूबी तरासी हुई जो इस मूर्ति को कला के झेत्र में अनुपम बनाती है . दूसरी खूबी यह प्रख्यात ब्रिटिश मूर्तिकार एंड्रू ओस्लो फोर्ड का इंडिया में निर्मित दो मूर्ति में से एक ज्ञ है . एक घोड़े पर सवार मैसूर के महाराज वादियर चमराजेंद्र X की है जो पहले कर्ज़न पार्क के सामने थी जो अब बंगलोर के लालबाग बोटैनिकल गार्डन में है l लंदन में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री ग्लेडस्टोन की खड़ी मूर्ति उनके द्वारा निर्मित काफी चर्चित रहा है . कोलकाता के ४२ चौरंगी के दरभंगा के महल के रियल स्टेट के कंपनी द्वारा खरीदने और तोड़ दिए जाने के बाद यही स्टेचू सिटी ऑफ़ जॉय से सिटी ऑफ़ पोंड , दरभंगा का रिस्ता बताने को शेष हैं .इस मूर्ति का अनावरण २५ मार्च १९०४ को बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एंड्रू फ़्रेज़र द्वारा सर गुरुदास बनर्जी (जो कोलकाता यूनिवर्सिटी जे पहले भारतीय कुलपति थे तथा बंगाल हाई कोर्ट के जज थे ) , राजा पियरे मोहन मुखर्जी जो लक्ष्मीश्वर सिंह के साथ हीं शाही परिषद् के सदस्य थे की गरिमामयी उपस्थिति में हुई . महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के वारे में कलकत्ता ओल्ड एंड न्यू के लेखक H. E. A. COTTON की चर्चित किताब जिसने सभी किताबों का रिकॉर्ड तोड़ दिया ने कहा है कि ये पूर्व और पश्चिम की विशेषताओं को सफलतापूर्वक जोड़ने का काम किये . हमें अपने ऐसे बिभूतियों पर गौरव करनी चाहिए जिनकी चर्चा पूर्व से लेकर पश्चिम तक है उनके सम्मान से दरभंगा का मान बढ़ेगा इसे हमें याद रखना होगा .
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