Wednesday 21 February 2024

 कबीर पंथ के संत कवी घरभरन झा 

कर्महे तरौनी मूल के श्रोत्रिय ब्राह्मण जिनका जन्म १८४० में दरभंगा जिला के  अवाम ग्राम में पंडित अपूछ झा के पुत्र के रूप में हुआ था।  इनका विवाह उजान ग्राम के पंडित हृदयनाथ झा के सुपुत्री से संपन्न हुआ जिनसे तीन पुत्र और ५ पुत्री का जन्म हुआ। कुल आठ संतान में  बड़े पुत्र नरसिंघ झा का देहवसान युवा अवस्था में हो गया और एक पुत्री का भी देहांत हो गया था जिनकी विवाह महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह से स्थिर था। दो पुत्री का विवाह   खण्डवला कूल  के मधेपुर ड्योढ़ी और इन्द्रपुर ड्योढ़ी के  बाबू  साहेब  से तथा एक पुत्री का विवाह भटपुरा ग्रामवासी श्रोत्रिय ब्राह्मण से संपन्न हुआ , सबसे छोटी पुत्री का विवाह दरभंगा के महाराज रमेश्वर सिंह से हुआ।  दो पुत्र  बाबू भगवान दत्त झा, एवं मंधन झा का जिक्र म.म।  परमेश्वर झा ने अपनी पुस्तक मिथिला तत्व विमर्श में  प्रभृत व्यक्ति में किया है। वे भरा पूरा परिवार छोड़कर  १९०० में  गोकुलवास हुए उस समय उनके दामाद मिथिलेश रमेश्वर सिंह  दरभंगा के महाराज थे। इनकी पत्नी का देहवसान राजनगर में हुआ था जहां महाराज ने मंदिर का निर्माण करवाया।   इनके दोभित्र { नाती ) दरभंगा के महाराज कामेश्वर सिंह और राजा बहादुर विशेश्वर सिंह और मधेपुर ड्योढ़ी के श्रीपति सिंह थे जिनके पुत्र डॉक्टर लष्मीपति सिंह मैथिली  के प्रख्यात विद्वान हुए।    

 बाबू घरभरन झा  कबीर पंथ के अनुयायी थे और उस पंथ में उनका सम्मान  गुरु का था। सुनने में आता है   कि   उनके मृत्यु के कई दशकों   तक  उस पंथ के साधु  उनके वास् डीह  से चरण धूलि  ले जाते थे यह भी परिवार के  लोगो का कहना है कि  अपने बड़े पुत्र के देहवसान होने पर वे करताल  बजाते हुए शमशान तक गए थे।   उनकी लिखी पाण्डुलिपि  कैथी लिपि में करीब १०० पृष्ट की मिली है जो कबीर भजन का प्रतीत होता  है जिसका   एक पन्ने  का  चित्र एवं अनुवाद प्रतिष्ठित पत्रिका  धर्मायन  के १३९ वं  अंक में प्रकाशित हुई है  जिसमे कई शब्द मैथिलि के है।  आचार्य रामानंद के १२  शिष्यों में कबीर , रैदास , धना , पीपा , पद्मावत्ती आदि संतों ने समाज के सभी वर्गों तक  लोकवाणी में अपनी बात पहुंचाई थी।  संतों के साहित्य पर आज विशद रूप से विवेचना की आवश्यकता है ताकि इन्हें भारतीय संत परम्परा में स्थापित किया जा सके।  संत कवी घरभरन झा के हीं मूल कर्महे तरौनी के परमहंस विष्णुपुरी १५ वी शती में हुए ,जिनके मैथिलि गीत बंगाल , असम , नेपाल , मिथिला में भी गाये गये।  जिनकी लिखी भक्तिरत्नावली चैतन्य महाप्रभु गाते  थे और आज भी लोकप्रिय है। इसीतरह असम के शंकर देव् को भी विष्णुपुरी जी ने भक्ति रत्नावली भेजी थी।                ..... ,   

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